Wednesday, December 14, 2022

धूप - सीमा अग्रवाल

 सर्द ब्याही बिटिया के-

जैसी आती है 

सर्द सवेरे वाली धूप 


हौले से दहलीज़ चूमती 

सकुचाती शर्माती 

फिर घर-आँगन कि पनियाई 

आँखों को दुलराती 


और जरा सी देर बीतते

हो जाती है 

वही पुरानी 'लाली' धूप


औचक ही खोई खोई सी

औचक ही नटखट सी 

कभी लहराती चूनर जैसी

कभी दिखे घूँघट सी


बड़े जतन से दोनों मन की

पारी पारी 

करती रखवाली धूप


कभी बहनों से वापस 

जाने के जाल बिछाती 

कभी पेड़ की फुनगी फुनगी

से उड़कर बतियाती


इस तट पीहर उस तट सासुल

बहती रहती 

नदिया सी मतवाली धूप 

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