Monday, December 12, 2016

सुधा भी पी नहीं जाती - रामस्वरूप सिन्दूर


सुधा भी पी नहीं जाती

आज को मैंने जिया कल कि प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !

बह गयी आकाशगंगा में करुण-गाथा,
गा रहा मैं अरुण छंदों में, वरुण-गाथा, 
ये नयन हैं, कौन-से जल की प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !


आँसुओं का अतल मन्थन कर चुका हूँ मैं,
रत्न-कोषों को अमृत से भर चुका हूँ मैं,
कल्पतरु भी है, किसी फल की प्रतीक्षा में !
एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !

अब तृषा को तृप्ति की सुधि भी नहीं आती,
वारुणी तो क्या सुधा भी पी नहीं जाती,
चल-अचल पल हैं, सकल-पल कि प्रतीक्षा में !

एक छल है, दूसरे छल की प्रतीक्षा में !

माखन-चोर कल था - रामस्वरूप सिन्दूर

माखन-चोर कल था

सेज फूलों की सजाये चाँद बैठा,
ज़िन्दगी बैराग के भुजपाश में है !

लोग कहते हैं कि मैंने सोम-घट जूठे किये हैं,
मानसर की बात क्या, सातों समन्दर पी लिये हैं,
आम-चर्चा है, कि मेरी, प्यास है गुमराह छोरी,
कल अमृत से खेलती थी, आज विष में उम्र-बोरी,

कान का कच्चा जहाँ है,
आँख क्या जाने कहाँ है,
शीश पर सूरज, चतुर्दिक धूनियाँ हैं
प्राण मेरा, आग के भुजपाश में है !


क़ैद हूँ मैं संयमी दीवार में, पहरे कड़े हैं,
जिस तरफ़ नज़रें उठाऊँ, विष-बुझे भाले जड़े हैं,
गुनगुनाहट भी, परिधि के पार जा पाती नहीं है,
फूल है जिस ठौर, बंदी गन्ध भी बैठी वहीँ है,

जो मुझे नकली बताये,
श्वास मेरे पास आये,
बेबसी की गोद में चन्दन पड़ा है
और ख़ुशबू, नाग के भुजपाश में है !

इस जवानी में हठी संगीत सन्यासी हुआ है,
अनथके अवरोह ने गहराइयों का तल छुआ है,
मैं वहाँ पर हूँ, जहाँ बजती नहीं शहनाइयाँ हैं,
बोलती परछाइयों से, गूँजती तनहाइयाँ हैं,

उम्र जो नगमा दबाये,
भूलती है भूल जाये,
कामना का नाम मीरा हो गया है
आज अंजलि, त्याग के भुजपाश में है !

आइने पर चोट पहली नक्श हो कर रह गयी है,
किस तरह भूलूँ कहानी, जो अनागत से नयी है,
गीत माखनचोर कल था, सारथी है आज मेरा,
यों बुझा मेरा सवेरा, हो गया रौशन अँधेरा,

दर्द के मुँह पर हँसी है,
बात कुछ ऐसी फँसी है,
हाथ फैलाये गगन बेसुध खड़ा है

कीर्ति मेरी, दाग के भुजपाश में है !

गौरैया - मणि मोहन

गौरैया 

स्कूल गयी गई है गौरैया 
अभी घर में पसरा है सन्नाटा 
पौने तीन बजे होगी छुट्टी 
तीन बजे तक लौटेगी गौरैया 

आते ही फेकेगी अपने जूते 
बरामदे में 
और बस्ता ड्राइंगरूम में 
(कभी इसका उलट 
बस्ता बरामदे में 
और जूते ड्राइंगरूम में)

कैसा रहा स्कूल ? पूछेगी माँ 
तिरछी नज़रों से देखेगी 
अपनी माँ को 
फिर झटकेगी अपने पंखों से 
मरे हुए शब्दों की धूल 
और मुस्करायेगी ...........

और फिर 
चहक उठेगा पूरा घर 
बस आती होगी गौरैया 

Tuesday, December 6, 2016

खो गयी है सृष्टि-राम स्वरूप 'सिन्दूर'

खो गयी है सृष्टि

दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने !
इस अँधेरी रात में, यह क्या किया मैंने !

यूँ लगे, जैसे नदी में बह गया हूँ मैं,
तीर पर यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं,
एक क्षण, पूरे समर्पण का जिया मैंने !

मिट गया अन्तर, सुरभियों और श्वासों में,
छोड़ यह तन, छिप गया सब कुछ कुहासों में,
अमृत से बढ़ कर, तृषा का रस पिया मैंने !

खो गयी है सृष्टि, या- फिर खो गया हूँ मैं,
जन्म के पहले प्रहर-सा, हो गया हूँ मैं,
काल-जैसे कुशल ठग को, ठग लिया मैंने !

Thursday, October 1, 2015

तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो..............सीमा अग्रवाल



तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो ..........
तुम पन्नों पर सजे रहो, अधरों - अधरों बिखरेंगे
तुम बन ठन कर घर में बैठो, हम सड़कों से बात करें
तुम मुठ्ठी में कसे रहो, हम पोर-पोर खैरात करें
इतराओ गुलदानों में, हम मिट्टी में निखरेंगे
तुम अनुशासित झीलों जैसे, हल्का-हल्का मुस्काते
हम अल्हड़ नदियों सा हँसते, हर पत्थर से बतियाते
तुम चिन्तन के शिखर चढ़ो हम चिन्ताओं में उतरेंगे !












Thursday, September 10, 2015

एक दिया चलता है आगे- आगे अपने ज्योति बिछाता - कृष्ण मुरारी पहारिया

एक दिया चलता है आगे-
आगे अपनी ज्योति बिछाता
पीछे से मैं चला आ रहा
कंपित दुर्बल पाँव बढाता

दिया जरा-सा, बाती ऊँची
डूबी हुई नेह में पूरी
इसके ही बल पर करनी है
पार समय की लम्बी दूरी


दिया चल रहा पूरे निर्जन
पर मंगल किरणें बिखराता

तम में डूबे वृक्ष-लताएँ
नर भक्षी पशु उनके पीछे
यों तो प्राण सहेजे साहस
किन्तु छिपा भय उसके नीचे

ज्योति कह रही, चले चलो अब

देखो वह प्रभात है आता

Wednesday, August 19, 2015

जैसे कभी पिता चला करते थे, - भारत भूषण



जैसे कभी पिता चला करते थे,
वैसे ही अब मैं चलता हूँ !
भरी सड़क पर बायें-बायें
बचता-बचता डरा-डरा-सा,
पौन सदी कंधों पर लादे
भीतर-बाहर भरा-भरा सा,
जल कर सारी रात थका जो
अब उस दिये-सा मैं जलता हूँ !
प्रभु की कृपा नहीं कम है ये
पौत्रों को टकसाल हुआ हूँ ,
कुछ प्यारे भावुक मित्रों के
माथे लगा गुलाल हुआ हूँ,
'मिलनयामिनी' इस पीढ़ी-को
सौप स्वयं बस वत्सलता हूँ !
कभी दुआ-सा कभी दवा-सा
कभी हवा-सा समय बिताया
संत-असंत रहे सब अपने
केवल पैसा रहा पराया,
घुने हुये सपनों के दाने,
गर्म आसुओं में तलता हूँ !!