Tuesday, December 6, 2016

खो गयी है सृष्टि-राम स्वरूप 'सिन्दूर'

खो गयी है सृष्टि

दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने !
इस अँधेरी रात में, यह क्या किया मैंने !

यूँ लगे, जैसे नदी में बह गया हूँ मैं,
तीर पर यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं,
एक क्षण, पूरे समर्पण का जिया मैंने !

मिट गया अन्तर, सुरभियों और श्वासों में,
छोड़ यह तन, छिप गया सब कुछ कुहासों में,
अमृत से बढ़ कर, तृषा का रस पिया मैंने !

खो गयी है सृष्टि, या- फिर खो गया हूँ मैं,
जन्म के पहले प्रहर-सा, हो गया हूँ मैं,
काल-जैसे कुशल ठग को, ठग लिया मैंने !

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