Monday, March 24, 2014

मैं अपने ही अधर चूम लूँ दर्पण में - प्रोफे. राम स्वरुप सिन्दूर

मैं अपने ही अधर चूम लूँ दर्पण में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

अधरों पर धर गया बांसुरी लीलाधर-बादल कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौधें , आग लगे चन्दन-वन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

आँखों की झील में तैरता सपना एक शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत , प्राण वृन्दावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

खारे सागर में उभरी है तल-तक डूबी सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की कविताएँ,
होना है नौका-विहार जल-प्लावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !


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