Friday, March 14, 2014

कुछ चला तू, कुछ चला मैं फ़ासला जाता रहा - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

कुछ चला तू, कुछ चला मैं, फ़ासला जाता रहा !
एक  झरने-सा,  कोई, लम्हा  हमें  गाता   रहा !

तू मिला मुझसे, तो कुछ, इस तौर से मझधार में,
दूर   हो   जाता   रहा,  आग़ोश  में   आता  रहा !

आईना   देखा   जो  मैंने,  तो  बड़ी    हैरत  हुई,
मेरे   चेहरे  पर  तेरा,  चेहरा  नज़र  आता  रहा !

वायदों  पर   वायदों  का,  सच  मुझे  मालूम  था,
फिर भी भोले दिल को मैं, हर बार समझाता रहा !

वक़्त ने 'सिन्दूर' मुझको एक ऐसा फन दिया !
मैं   ग़ज़ल  से  दर्द  को  ताउम्र  बहलाता  रहा !

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