Friday, March 14, 2014

देह मुक्ति मिल गयी मुझे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं निर्बंध हो गया, पहले ही निर्बंध मिलन में !
देह मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही भुजबंधन में !

अधर-तृप्त अर्पित-अंजलि में स्वत्व सिमट जाता है,
शब्द-शब्द में एक अजन्मा गीत, मुझे गाता है,
मैं अरविन्द हो गया, पहले ही अरविन्द-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही परिरम्भन में !

मेघिल गंध तरंगित रहती अन्तर की घाटी में ,
मृग-शावक-सा भरे कुलाचें, कस्तूरी माटी में ,
मैं मकरंद हो गया, पहले ही मकरंद-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही मधु-मन्थन में !

विसुधि, देवदासी से मीरा-मीरा हो जाति है,
नर्तित-झंकृति आशु-पदों में आत्म-निरति गाती है,
मैं रस-छन्द हो गया, पहले ही रस-छन्द मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही सम्मोहन में !

श्वास, पवन की शिखर श्रेणियां पार किये जाती है,
अन्तरिक्ष का ताप, सिन्धु की तरह पिये जाती है,
मैं आनन्द हो गया, पहले ही आनन्द-मिलन में !
देह-मुक्ति मिल गयी मुझे, पहले ही संवेदन में !





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