Sunday, March 30, 2014

याद आया ये आज कौन इतनी रात ढले ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

याद आया ये आज कौन इतनी रात ढले !
सूने  कमरे में  जैसे  कोई दबे  पाँव चले !

पहली बारिश  भी कहाँ  दे गई  पनाह मुझे,
स्याह अलकों में छिपी घोर घटाओं के तले !

दर्द  सहने की  महारत-सी  हो  गई  है  मुझे,
बर्फ़ के दिल पे रखी आग कितनी देर जले !

पानी-पानी  है  रात, पास  मैकदा भी  नहीं,
याद तो  उसकी  हाथ  धो-के पड़ी  मेरे गले !

नफ़स-नफ़स मेरी हर लम्हा गुनगुनाती रहे,
ज़िंदगी  और  छले,  और  छले,  और  छले !

ख़बर   कहाँ   है   'सिन्दूर'   ज़िंदगी  को अभी,
मैं  उसके  साथ  चलूँ ,  मौत  मेरे साथ  चले !

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