Sunday, March 8, 2015

कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज - विष्णु माया

कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज
समाज तुझमे मर रही हूँ हर रोज.
नारी हूँ , पथगामिनी हूँ
जीवन तेरी ही अर्धांगिनी हूँ
फिर भी कागज़ों में सिमट रही हूँ हर रोज.
हर मुख पर सिसक रही हूँ हर रोज
धारित्री हूँ , वरदायिनी हूँ
माँ तेरी ममतामयी कहानी हूँ
फिर भी हर आस में जी रही हूँ हर रोज
प्रेम तेरे दामन में नफरत सह रही हूँ हर रोज

Saturday, March 7, 2015

आठ साल की छुटकी~ मणि मोहन मेहता

छुटकी
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आठ साल की छुटकी
अपने से दस साल बड़े
अपने भाई के साथ
बराबरी से झगड़ रही है

छीना-झपटी
खींचा-खांची
नोचा -नाचीं
यहाँ तक की मारा -पीटी भी
उसकी माँ नाराज है
इस नकचढ़ी छुटकी से
बराबरी से जो लडती है
अपने भाई के साथ
वह मुझसे भी नाराज है
सर चढ़ा रखा है मैंने उसे
मैं ही बना रहा हूँ उसे लड़ाकू
शायद समझती नहीं
कि ज़िन्दगी के घने बीहड़ से होकर
गुजरना है उसे
इस वक्त
खेल- खेल में जो सीख लेगी
थोड़ा बहुत लड़ना भिड़ना
ज़िन्दगी भर उसके काम आयेगा ।
~ मणि

मैने तुमसे जब भी बातें की - विशाल कृष्ण सिंह

1-
मैं उतना अच्छा नहीं जितना तुम समझते थे,
उतना बुरा भी नहीं जितना तुम मान बैठे हो,
कि तुम हमेशा सिरा पकड़ते हो,
और मै
अक्सर कहीं धागे के बीच में होता हूँ |


2-
मैने तुमसे जब भी बातें की |
धीरे से वो सारी बातें
औरों ने सुन ली,
कहने लगे
मैं कविताएँ कहता हूँ |
पर ये सच नहीं /
मैं तो ' सिर्फ ' और ' सिर्फ'
तुमसे
बात करता हूँ ||

नीवें सब खोखली हुईं - अनिल शर्मा

नीवें सब खोखली हुईं
कंगूरे आंकते रहे
घर से उठता रहा धुआं
दूर खड़े ताकते रहे !!
नीवें सब खोखली हुईं ..................

शहनाई ने करवट ली
नदिया फिर खो गई कहीं
पर्वत ने तान लिया मौन
लोग प्रश्न उछालते रहे !!
नीवें सब खोखली हुईं .........


सोचा था जीवन के तम
काटेंगें लोगों के हम
सूरज की आग लिए
हम उनके पास भी गए
लोग महज़ तापते रहे
दूर-दूर भागते रहे !!
नीवें सब खोखली हुईं ................

फुनगी पर आ बैठी शाम
लोगों के थे अपने काम
हीरे सा तन लिए हुए
दर्द से कराहते रहे !!
नीवें सब खोखली हुईं ..................

Thursday, March 5, 2015

कहीं क्षितिज में देख रही है - सतीश सक्सेना

कहीं क्षितिज में देख रही है
जाने क्या क्या सोंच रही है
किसको हंसी बेंच दी इसने
किस चिंतन में पड़ी हुई है
नारी व्यथा किसे समझाएं, गीत और कविताई में
कौन समझ पाया है उसको, तुलसी की चौपाई में

उसे पता है,पुरुष बेचारा
पीड़ा नहीं समझ पायेगा
दीवारों में रहा सुरक्षित
कैसे दर्द, समझ पायेगा
पौरुष कबसे वर्णन करता, आयी मोच कलाई में
जगजननी मुस्कान ढूंढती,पुरुषों की प्रभुताई में

पीड़ा,व्यथा, वेदना कैसे
संग निभाएं बचपन का
कैसे माली को समझाएं
कष्ट, कटी शाखाओं का
सबसे कोमल शाखा झुलसी,अनजानी गहराई में
कितना फूट फूट कर रोयी,इक बच्ची तनहाई में

बेघर के दुःख कौन सुनेगा ,
कैसे उसको समझ सकेगा ?
अपने रोने से फुरसत कब
जो नारी को समझ सकेगा ?
कैसे छिपा सके तकलीफें, इतनी साफ़ ललाई में
भरा दूध आँचल में लायी, आंसू मुंह दिखलाई में

कैसे सबने उसके घर को
सिर्फ,मायका बना दिया
और पराये घर को सबने
उसका मंदिर बना दिया
कवि कैसे वर्णन कर पाए , इतना दर्द लिखाई में
कैसी व्यथा लिखा के लायी,अपनी मांगभराई में

जंगली फूलों सी लड़की - अनुलता राज नायर

जंगली फूलों सी लड़की
मुझे तेरी खुशबू बेहद पसंद है
उसने कहा था...
"मुझे तेरा कोलोन ज़रा नहीं भाता"
बनावटी खुशबु वाले उस लड़के से
बात करती लडकी ने
मन ही मन सोचा....
लड़का प्रेम में था
उस महुए के फूल जैसी लडकी के |
वो उसे पी जाना चाहता था शराब की तरह
लडकी को इनकार था
खुद के सड़ जाने से....
लड़का उसे चुन कर
हथेली में समेट लेना चाहता था
हुंह.....वो छुअन!
लड़की सहेजना चाहती थी
अपने चम्पई रंग को.
लड़का मुस्कुराता उसकी हर बात पर,
लड़की खोजती रही
एक वजह -
उसके यूँ बेवजह मुस्कुराने की....

मैं गुनाहगार था न - अवज्ञा अमरजीत गुप्ता

मैं गुनाहगार था न/
यह कहकर निकाला गया/
तू सोच/
तेरे मोहल्ले में फिर मेरे चर्चे क्यों है?

झूठ मक्कारी दगा/
सबने बारी बारी ठगा/
उठा पोटली/
ले अब मैं रुख़सत हुआ/
तू सोच/
तेरा महल अब खंडहर क्यों है?
हाँ में हाँ जो मिलाता मैं/
पत्थरों को तोड़ रास्ता कैसे बनाता मैं/
तुझे तेरा महल,साजो-सामान,शागिर्द, मुबारक/
मुझे रास्तों की धूल फिर से खाने दे...