Sunday, March 8, 2015

कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज - विष्णु माया

कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज
समाज तुझमे मर रही हूँ हर रोज.
नारी हूँ , पथगामिनी हूँ
जीवन तेरी ही अर्धांगिनी हूँ
फिर भी कागज़ों में सिमट रही हूँ हर रोज.
हर मुख पर सिसक रही हूँ हर रोज
धारित्री हूँ , वरदायिनी हूँ
माँ तेरी ममतामयी कहानी हूँ
फिर भी हर आस में जी रही हूँ हर रोज
प्रेम तेरे दामन में नफरत सह रही हूँ हर रोज

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