Tuesday, November 4, 2014

हमने शाप बटोरे इतने , सदियों तक हम शिला रहेंगे ! - सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

हमने शाप बटोरे इतने ,
सदियों तक हम शिला रहेंगे !

कहाँ गये अपने हिस्से के मोरों-वाले जंगल सारे ,
उल्लासों की लाल पतंगें , खुशिओं के नीले गुब्बारे ,
चीख-चीख कर इस अरण्य में ,
किससे अपनी व्यथा कहेंगे ?

जिनको गूंथना था माला में , वे गुलाब कितने बासे थे ,
कागों को क्या पता कि घर के सारे नल खुद ही प्यासे थे ,
कब तक मृग बनने की धुन में ,
हर दिन सौ-सौ बाण सहेंगे ?

हाँ , कंदीलों ने बुझ-बुझकर , और घनी कर दी हैं रातें ,
देखो कमरे में घुस आयी तिरछी हो-होकर बरसातें ,
चट्टानों से भरी नदी में हम-तुम कितनी दूर बहेंगे ?

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