Saturday, March 28, 2020

प्रतिनिधि हो गई हूँ अपने वंश की - रेनू चन्द्रा

कहीं गये नहीं बाबा मेरे
शामिल हो गये मेरे अस्तित्व में
रुढियों की खिलाफ़त बनकर

खोया नहीं था मैंने माँ को
वह मुझमें ही समा गयी थी
स्नेह बनकर

खोया नहीं था मैंने बहन को
वह मेरे साथ ही रहने लगी
मेरे बचपना बन कर
खोया नहीं मैंने सासू माँ को
वह मुझमें झलकने लगी
उपदेश और कहावतों की शक्ल में

खोया नहीं मेरा प्यारा देवर भी
वह एकात्म हो गया मेरे साथ
दबंगी की सूरत में

खोए नहीं मेरे पिताजी
वो मेरे साथ रहने लगे हैं मुझमें
अनुशासन बन कर
मैं, सिर्फ़ मैं ही नहीं रही
प्रतिनिधि हो गई हूँ
अपने वंश की 

नदी रोज पूंछा करती है - कृष्ण मुरारी पहरिया

नदी रोज पूंछा करती है, ऐसे क्यों चल दिए अकेले
वहां वही अनजान नगर है, यहाँ भावनाओं के मेले

भीड़ भरे उस कोलाहल में, पशुता के बल न्याय हो रहा
आम आदमी अब भी अपना, जीवन जैसे भार ढो रहा
शोषण - उत्पीड़न की पहले जैसी जटिल उपस्थिति जारी
चिंता - तृष्णा नृत्य कर रही, राग भरा अनुराग सो रहा

भला वहाँ पर कैसे कोई, मधुर कल्पनाओं से खेले

प्यार वहां कांटे पर तुलता, परंपरा रिश्ते रचती है
अभ्यंतर के व्यंग अंध-कक्ष में, केवल एक घृणा बचती है
और घृणा का व्यंग उभरकर, मुस्कानों में सदा खेलता
शिष्टाचार बोझ लगता है, मोह नहीं, माया पचती है

भाव वहां ऐसे बिकते हैं, ज्यों मंडी में गुड़ के मेले 

Wednesday, January 25, 2017

मैं यायावर गुन्जन हूँ - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मैं यायावर गुन्जन हूँ

जैसे-जैसे दृगबन्ध खुले,
मटमैले सपने रंग धुले,
कोई सुरंग मुझ को मधुवन में छोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं बन्दी-राजकुँअर की नियति जी रहा था
पर, कोई भी कल्पना मूर्त हो जाती थी,
तृप्ति के कमल खिलते थे राजसरोवर में
मुक्ति की कामना फिर भी बहुत सताती थी,
खंडित सुरंग, मुझको फिर मुझसे जोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !


दंशित-तन का विष पिया एक निर्झरणी ने
श्वास का कलुष बह गया तरंगित गन्धों में,
जीती-मरती माटी का काया-कल्प हुआ
सीमान्त सृष्टि सिमटी मेरे भुजबंधों में,
दुर्बल सुरंग, काल की कलाई मोड़ गयी !
हीरक हथकड़ियाँ स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

मैं यायावर गुन्जन हूँ पुष्पक घाटी का
मैं महाप्रलय में भी अक्षय लय गाऊँगा,
डूबेंगे जब हिमसृंग अतल जलप्लावन में
शब्द के कंठ में बैठ नाद हो जाऊँगा,
सर्पिल सुरंग, अंजलि में अमृत निचोड़ गयी !

हीरक हथकड़ियाँ, स्वर्ण बेड़ियाँ तोड़ गयी !

Tuesday, January 24, 2017

तुम आये तो - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'



तुम आये तो सावन आया, गये उठा तूफ़ान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

कुछ कहना हो, कुछ कह जाऊं,
दिन-दिन-भर घर में रह जाऊं,
ताजमहल जैसा लगता है कलई पुता मकान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

दर्पण देखूँ, देख न पाऊँ,
अर्थहीन गीतों को गाऊँ,
सूरज डूबे ही पड़ जाऊँ, सर से चादर तान !
जल में तैरे रेगिस्तान !


सोते में चौकूँ, डर जाऊँ,
साँस चले, लेकिन मर जाऊँ,
सिरहाने रखने को खोजूँ, आधी रात कृपान !
जल में तैरे रेगिस्तान !

मुश्किल से हो कहीं सबेरा,
चैन तनिक पाये जी मेरा,
जैसे-जैसे धूप चढ़े, होता जाऊँ नादान !

जल में तैरे रेगिस्तान !

Monday, January 23, 2017

मधुर दिन बीते ......................- प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'



मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

यादों के सरगम से ऊबे,
सपनों के आसव में डूबे,
आँखें रस पीती हैं, लेकिन होंठ अश्रु पीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !


आतप ने झुठलाई काया,
सर पर बादल-भर की छाया,
सूखी पौद हरी कर देंगें, क्या कपड़े तीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !
वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते !

हम पनघट की राहें भूले,
मृग मरीचिकाओं में फूले,
कन्धों के घट पड़े हुये हैं, रीते के रीते !
मधुर दिन बीते-अनबीते !

वर्तमान में नहीं, इन्हीं दोनों में हम जीते ! 

Saturday, January 21, 2017

हठ कर गया वसन्त - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

हठ कर गया वसन्त

मन करता है फिर कोई अनुबन्ध लिखूँ !
गीत-गीत हो जाऊँ, ऐसा छन्द लिखूँ !

करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन-सुवर्णी रेखायें,
मैं गुन्जन-गुन्जन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गायें,
हठ पद गया वसन्त, कि मैं मकरन्द लिखूँ !
श्वास जन्म-भर महके, ऐसी गन्ध लिखूँ !


सरसों की रागारुण चितवन
दृष्टि कर गयी सिन्दूरी,
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी,
देह-मुक्ति चाहे, फिर से रस-बन्ध लिखूँ !
बन्धन ही लिखना है, तो भुजबन्ध लिखूँ !

सुख से पंगु अतीत, विसर्जित
कर दूँ जमुना के जल में,
अहम् समर्पित हो जाने दूँ
आगत से, ऐसा भावी सम्बन्ध लिखूँ !

हस्ताक्षर में, निर्विकल्प आनन्द लिखूँ !

Thursday, January 12, 2017

मधुवास जिया जाये - रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मधुवास जिया जाये

अधिवास या-कि निर्वास जिया जाये !
प्रति-पल कोई उल्लास जिया जाये !

उच्छवास अतल से अमृत खींच लाये,
नि:श्वास शून्य के अधरों पर गाये,
करुणा मन्वन्तर-व्यापी छन्द रचे
संवास या-कि वनवास जिया जाये !
बारहमासी मधुमास जिया जाये !


वय की संगणना अंकों की माया,
अन्त तक रहेगी सोनल यह काया,
मेरे तप का आतप सह लेती है,
संवेदन की मेघिल-मेघिल छाया,
विन्यास या-कि संन्यास जिया जाये !
ज्वार के शीश पर रास जिया जाये !

मुझ से, मुझ-तक मेरा संज्ञान गया,
कल्प का भेद, मैं क्षण में जान गया,
मैंने ऐसा नि:शब्द गीत गाया
जो बोधिसत्व मुझ में सन्धान गया,
विश्वास या-कि आभास जिया जाये !

केवल कवि का इतिहास जिया जाये !