Saturday, March 28, 2020

नदी रोज पूंछा करती है - कृष्ण मुरारी पहरिया

नदी रोज पूंछा करती है, ऐसे क्यों चल दिए अकेले
वहां वही अनजान नगर है, यहाँ भावनाओं के मेले

भीड़ भरे उस कोलाहल में, पशुता के बल न्याय हो रहा
आम आदमी अब भी अपना, जीवन जैसे भार ढो रहा
शोषण - उत्पीड़न की पहले जैसी जटिल उपस्थिति जारी
चिंता - तृष्णा नृत्य कर रही, राग भरा अनुराग सो रहा

भला वहाँ पर कैसे कोई, मधुर कल्पनाओं से खेले

प्यार वहां कांटे पर तुलता, परंपरा रिश्ते रचती है
अभ्यंतर के व्यंग अंध-कक्ष में, केवल एक घृणा बचती है
और घृणा का व्यंग उभरकर, मुस्कानों में सदा खेलता
शिष्टाचार बोझ लगता है, मोह नहीं, माया पचती है

भाव वहां ऐसे बिकते हैं, ज्यों मंडी में गुड़ के मेले 

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