Saturday, January 21, 2017

हठ कर गया वसन्त - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

हठ कर गया वसन्त

मन करता है फिर कोई अनुबन्ध लिखूँ !
गीत-गीत हो जाऊँ, ऐसा छन्द लिखूँ !

करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन-सुवर्णी रेखायें,
मैं गुन्जन-गुन्जन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गायें,
हठ पद गया वसन्त, कि मैं मकरन्द लिखूँ !
श्वास जन्म-भर महके, ऐसी गन्ध लिखूँ !


सरसों की रागारुण चितवन
दृष्टि कर गयी सिन्दूरी,
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी,
देह-मुक्ति चाहे, फिर से रस-बन्ध लिखूँ !
बन्धन ही लिखना है, तो भुजबन्ध लिखूँ !

सुख से पंगु अतीत, विसर्जित
कर दूँ जमुना के जल में,
अहम् समर्पित हो जाने दूँ
आगत से, ऐसा भावी सम्बन्ध लिखूँ !

हस्ताक्षर में, निर्विकल्प आनन्द लिखूँ !

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