Saturday, December 20, 2014

मुरझा कर भी ........ प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

मुरझा कर भी खिला रहेगा
यह गुलाब का फूल,
विदा की वेला का यह फूल !

इसमे ढले तुम्हारे आंसू,
ऊषा के रतनारे आंसू,
सूखे पात याद करते हैं
भीगा हुआ दुकूल !
विदा की वेला का यह फूल !


गन्ध बस गई इन श्वांसों में,
रंग दृगों के आवासों में,
लगा इसे अधरों से, सारी-
दुनिया जाता भूल !
विदा की वेला का यह फूल !

निशि-दिन एक सुरभि सा डोलूँ,
नंदन-वन की भाषा बोलूं,
अगर चढ़ी तो साथ चढ़ेगी
हम दोनों पर धूल !
विदा की वेला का यह फूल !


प्रोफे. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’  

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