Wednesday, December 31, 2014

प्राणों में साकेत - .........प्रोफे. रामस्वरुप ‘सिन्दूर’




मैं अपने ही अधर चूम लूँ दरपन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

अधरों पर धर गया बाँसुरी लीलाधर-बादल कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौंधे, आग लगे चन्दन-वन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !


आँखों की झील में तैरता सपना एक शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत, प्राण वृन्दावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !
 प्राणों
खारे सागर में उभरी हैं तल-तक डूबी सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की कविताएं,
होना है नौका-विहार, जलप्लावन में !
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में !

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