Tuesday, December 30, 2014

मैं हूँ बड़ा कीमती - प्रोफ़े. रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

 मुझ को यह क्या हुआ, उपेक्षा ख़ुश कर जाती है !
गहरी आह, ऊर्जा से सांसें भर जाती है !

देख तरोताज़ा मुझ को दुनिया हैरत में है,
जान छिडकता मुझ पर जो मेरी संगत में है,
मेरे मन का भेद न ले पाता मुझ से कोई
पारंगत ‘इंटरव्यूकर्ता’ भी सांसत में है,
अखबारी लेखनी प्रश्न करते डर जाती है !

भटक-भटक जाता हूँ बेहद परिचित राहों में,
खीझ लगे तो कस लेता हूँ ख़ुद को बाँहों में,
ऐसी बढ़िया क़िस्मत ले कर जन्म लिया मैंने
कौड़ी पास न होने पर भी गिनती शाहों में,
मैं बाहर रह जाता, जब काया घर जाती है !


मेरे तौर-तरीकों पर हैं फ़िदा शत्रु मेरे,
बिल्कुल अपने, रहें आजकल मुझ से मुँह फेरे,
मीठी अमराई की कच्ची-कच्ची गंधों ने
पथराये तन पर डाले सम्मोहन के घेरे,
आती है घनघोर बौर, लेकिन झर जाती है !

कोई भी पुस्तक हो पढ़ी-पढ़ी सी लगती है,
मुझे न ठग पाती माया, जो सबको ठगती है,
मैं हूँ बड़ा कीमती यह भ्रम दूर नहीं होता
दर्पण व्यंग करे तो गोली-जैसी दगती है,
मौत, मुझे छूने से डर जाती है !



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