Saturday, March 28, 2020

वे चले जा रहे हैं - गौरव सोलंकी (कोरोना वायरस के दौरान लॉकडाउन में फसे मजदूरों को दृष्टिगत लिखी कविता )

 वे चले जा रहे हैं
कभी इस हाथ में पकड़ते हैं बैग,
कभी दूसरे में.
एक ने तो अपनी पत्नी को ही
कंधे पर बिठा लिया है
सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र के लिए.

मेरी भाषा की फिल्मों में उनकी कोई प्रेम कहानी नहीं
कोई स्टार ऐसा चैलेन्ज नहीं देता टिवटर पर
किसी सैल्फ डिस्कवरी के ट्रैवल वाले गाने में ये दृश्य न दिखे हैं, न दिखेंगे !
हम अपने घर में झाड़ू लगाकर, साला अपना खाना खुद बनाकर गर्व कर रहे हैं
यूरेका यूरेका ! जाम कर दिया है हमने इंटरनेट को अपने खाने की तस्वीरों को !
और ये चले जा रहे हैं बिना खाने के
बिना सवाल पूछे
बिना कोई दरवाजा खटखटाए !

इनके बच्चे थकते नहीं क्या ?
ये नहीं मांगते क्या  मेक अन चीज और दूसरे हाथ में फोन ?
कैसा लगता होगा जब पिता को रास्ते में कहीं भी पुलिस  पीट देती है ?
इनके लोहे के पैर हैं इनकी छाती में अथाह धीरज है
इन्होने बनाई हैं छतें और खिड़कियाँ
जिनसे ये सुन्दर सूरज दिखता है
इन्होने उगाई हैं फसलें, वे अनाज जिन्हें हमने स्टॉक कर लिया है
इन्होने अपने कन्धों पर सैंकड़ों सालों से इस पृथ्वी को ढोया है,
तो एक बैग क्या है ?
ये तो पंहुच ही जायेंगे देर सवेर,
पैरों में छाले और पीठ पर मार के निशान लेकर.

मुझे बस ये जानना है कि हम कहाँ पंहुचेगें
कौन से हैशटेग पर पंहुच कर ये हमारे कमरों से अपनी ईटें मांगेगे ?
कौन से पर हमें याद आयेगा कि किसी के हिस्से के खाने में से,
एक थाली उसे देने को
दान नहीं बोलते  !

  

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