Tuesday, March 31, 2020

दिहाड़ी मजदूर - रतन कुमार श्रीवास्तव ( आई पी एस, सेवानिवृत डी आई जी )

ये जो दिहाड़ी जिंदगी,
बिखरने लगी है टूटकर !
हमवतन और वेवतन,
चलने लगे हैं छूटकर !

सड़कों पर सोने नहीं देता,
पांवों से भी चलने नहीं देता !
थक गया हूँ इस शहर में,
इस जिन्दगी से टूटकर !

धूप में जलने की कीमत,
ठंड में मरने की कीमत !
अब कोई कीमत देता नहीं,
क्या करूँ, कैसे करूँ, परिजनों से छूटकर !

घरों में कैद हैं घरोंदे वाले,
घरों से काम करते हैं घरोंदे वाले !
हम कहाँ जायें, खिलायें,
हर दर बदर से रूठकर !

काश ! कोई होंसला थोड़ा भी दे दे,
पीठ पर कोई भी अपना हाथ दे !
हम भी कुछ कर दिखायेंगे जरुर,
इन रहवरों के साथ जुड़कर ! 

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