Monday, January 9, 2017

एक निवेदन - मुकुट बिहारी 'सरोज'

उत्तर का अन्तिम अक्षर लिखना बाकी था,
घोषित तुमने व्यर्थ परीक्षा-फल कर डाला !

किस नीयत से अंक दिए कम, ये तुम जानो,
मैंने तो हल करने में, आँसू बरते थे,
दुःख के गुरुकुल का स्नातक था, जहाँ रात-दिन--
बड़े - बड़े ज्ञानी-ध्यानी, पानी भरते थे,

मैंने सिर्फ अभावों के अनुबन्ध लिखे थे,
तुमने उनकी गिनती कर टोटल कर डाला !

कर्जदार हो जाए न दुनियाँ की तरुणाई,
परम्परा के हाथ इसलिए नहीं वर सका,
आश्वासन तो बहुत दिये थे आसमान ने--
मैं ही कुछ, तम से समझौता नहीं कर सका,

मैंने सिर्फ सलामी भेजी थी सूरज को,
तुमने आँखें मूँद सत्य ओझल कर डाला !

बुरे दिनों में पढ़ा, किया असफल इस कारण,
लेकिन इस लिखाव का मरम नहीं पहिचाना,
और किसी बैठे के प्रति चलनेवाले के -----
दायित्वों का पहला धरम नहीं पहिचाना,

सही रूपरेखा को महज़ नक़ल ठहराकर,
तुमने मेरा काम और मुश्किल कर डाला !  


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