Wednesday, January 4, 2017

मुक्ति का द्वार नकार गये - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

वासंती-पल जीत गये
जोगी-पल हार गये !
किस चितवन की मूठ
तुम्हारे नैना मार गये !

पीताम्बर मौसम ने काया-कल्प कर दिया है,
सुमिरन-सधे कंठ में स्वगत-प्रलाप भर दिया है,
दिवा-स्वप्न तन-मन का
गैरिक रंग उतार गये !
तोड़ मौनव्रत,
अधर तुम्हारा नाम पुकार गये !


जप-भूली उँगलियाँ, तितलियाँ पकड़, छोड़ती हैं,
व्यर्थ-गये जीवन के कितने वर्ष जोड़ती हैं,
रूप-रूप क्षण, अन्तर की
घाटी झंकार गये !
प्राण तुम्हारे लिये
मुक्ति का द्वार नकार गये !

संयम, दर्पण पर पारे की तरह फिसलता है,
रसपायी-एकान्त, काल की चाल बदलता है,
शिखर-तरंगित गन्ध-ज्वार
भव-सागर तार गये !
एक समन्दर क्या,
हम सात समन्दर पार गये !

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