Wednesday, January 4, 2017

गीतान्तर में गाया - प्रोफे. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

मैंने अपने जन्मान्तर को, भाषान्तर में गाया !
कविता में अकथ कथान्तर को, गीतान्तर में गाया !

अक्षर-अक्षर स्वर-लिपियों में अनुगुन्जन ढल जाता है,
ध्वनि-मुद्रित शब्द-शब्द में कोई छन्द उभर आता है,
मैंने अपने भावान्तर को, भाषान्तर में गाया !
निर्वचन हुए अर्थान्तर को, गीतान्तर में गाया !


रस-चक्रव्यूह भेदन कर मैंने काया-कल्प किया है,
निर्झर से घाटी में उतरी गति का संगीत जिया है,
मैंने अपने रूपान्तर को, भाषान्तर में गाया !
प्रान्तर-प्रान्तर देशान्तर को, गीतान्तर में गाया !

मैं आत्म निरति में डूब नाद के तलमें लौट गया हूँ,
भूला श्रुतियों को श्रुति के पहले पल में लौट गया हूँ,
मैंने अपने लोकान्तर को, भाषान्तर में गाया !

ठहरे-ठहरे कालान्तर को, गीतान्तर में गाया !

No comments:

Post a Comment