Tuesday, January 10, 2017

एक युगीन वक्तव्य - मुकुट बिहारी 'सरोज'

रात भर पानी बरसता और सरे दिन अंगारें,
अब तुम्हीं बोलो कि कोई ज़िन्दगी कैसे गुजारे !

आदमी ऐसा नहीं है आज कोई,
साँस हो जिसने न पानी में भिगोई,
दर्द, सबके पाँव में रहने लगा है,
खास दुश्मन, गाँव में रहने लगा है,
द्वार से आँगन अलहदा हो रहे हैं,
चढ़ गया दिन मगर सब सो रहे हैं,

अब तुम्हीं बोलो कि फिर आवाज़ पहली कौन मारे,
कौन इस वातावरण की बंद पलकों को उघारे !

बेवजह सब लोग भागे जा रहे हैं,
देखने में ख़ूब आगे जा रहे हैं,
किन्तु मैले हैं सभी अन्त:करण से,
मूलत: बदले हुए हैं आचरण से,
रह गए हैं बात वाले लोग थोड़े,
और अब तूफ़ान का मुँह कौन मोड़े,

नाव डांवाडोल है ऐसी कि कोई क्या उबारे,
जब डुबाने पर तुले ही हों किनारे पर, किनारे !

है अनादर की अवस्था में पसीना,
इसलिए गढ़ता नहीं कोई नगीना,
जान तो है एक उस पर लाख गम हैं,
इसलिए किस्में बहुत हैं, नाम कम हैं,
नागरिकता दी नहीं जाती सृजन को,
अश्रु मिलते हैं तृषा के आचमन को,

एक उत्तर के लिए, हल हो रहे हैं ढेर सारे,
और जिनके पास हल हैं, बंद हैं उनके किबारे !

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