Saturday, July 12, 2014

अब भी अतीत में धंसे हुए हैं पांव - कृष्ण मुरारी पहरिया

अब भी अतीत में धंसे हुए हैं पांव
आगे बढ़ने का कोई योग नहीं
आँखों के सम्मुख सपनों की घाटी
उस तक पहुंचूं कोई संयोग नहीं

सुधियाँ भी हैं , संबंध पुराने हैं
ताजे होते रहते हैं बीते घाव
इनमें ही फंसकर रह जाता है मन
मर जाता अगला पग धरने का चाव

कुछ ऐसे भी हैं काया के दायित्व
जिनके बोझ से झुके हुए कंधे
कुछ ऐसे पर्दे भी रीतों के
जिनके रहते ये नयन हुए अन्धे

उर में है चलते रहने का संकल्प
यह बात असल है , कोई ढोंग नहीं

काया की अपनी जो मज़बूरी हो
अंतस की अपनी ही गति होती है
कैसा ही गर्जन-तर्जन हो नभ में
कोयल केवल मीठे स्वर बोती है

अन्तर्द्वन्दों में जो फस जाते हैं
उनका भी अपना जीवन होता है
भावी की सुखद कल्पनाओं के बीच
सुख से सारा विष पीना होता है

दुःख, तडपन और निराशा हो प्रारब्ध
यह भी जीना है कोई रोग नहीं

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