Friday, July 4, 2014

मैं सूर्यकिरण का प्यासा सूर्यमुखी ! - नरेंद्र शर्मा

मैं सूर्यकिरण का प्यासा सूर्यमुखी !
मैं मनोनयन की भाषा सूर्यमुखी !

थर्राया था भू-गर्भ , चितेरे ने देखी धड़कन ,
थी 'वानगांग' की तूलि, कर सकी जो मेरा अंकन ,
मैं अवनी की अभिलाषा सूर्यमुखी !

बैठी थी मेरे पास एक छोटी-सी छुईमुई,
छू दिया किसी ने उसे, स्वप्नमग्ना संकुचित हुई ,
मैं खुल-खिलने की आशा सूर्यमुखी !

मैं यों बोला: सुन सखी ! न संज्ञा त्वक् तक ही सीमित ,
संकोच नहीं, उत्क्रांत क्रांतिद्रष्टा जन ही जीवित,
मैं दिवा-स्वप्न-जिज्ञासा सूर्यमुखी !


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