Sunday, July 27, 2014

वो कहर बरपाती है कगार ढहते हैं प्रलय आ जाता है - दिव्या शुक्ला


नदी कितना कुछ समेटे बहती रहती है
कहीं उथली तो कहीं गहरी / मंथर गति से मुस्काती हुई
तो कभी प्रसन्नबदना किल्लोल करती हुई
परंतु यदि उसे कैद किया तो क्रोध से उफनाती भी है
वो कहर बरपाती है कगार ढहते हैं प्रलय आ जाता है
गाँव शहर बस्ती जंगल सब बह जाते है ---
स्त्री भी तो एक नदी ही है स्वयं में और तुम्हारे जीवन में भी
सब कुछ समेटे जीवन धारा में बहती रहती है जीवनभर
तुम्हारा दिया सब कुछ समेटे ऊपर से शांत परंतु भीतर कोलाहल भरा
ह्रदय के अतल में दर्द का ज्वालामुखी भी /और एक पल प्रेम का भी संजोये
याद करती है अनचाहे ही पुरातन काल से चले आये यह श्लोक
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कार्येशु मंत्री, कर्मेशु दासी , भोज्येशु माता !
शयनेषु रम्भा, मनोंनुकूला, छमा धारित्री !!
षड् गुणा युक्ता त्वायिः धर्म पत्नी !!



कोशिश करती है खरा उतरने की पर जैसे नदी अपना धैर्य खो देती है
तो कगार ढह जाते है /वैसे ही स्त्री यदि अपना धैर्य खो देती है तो
नष्ट हो जाता है सम्पूर्ण समाज / मत काटो उसे साग भाजी की तरह
मिटटी का पात्र नहीं /प्रेम और पीड़ा की मिटटी से गुंधी हुई नारी का
अपमान मत करो /धरा और आकाश का पावन पुनीत नाता बनाये रखो

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