Saturday, July 5, 2014

आंसू अनुपात हरे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं घर-द्वार छोड़ कर भटकूँ,
वन-वन विजन-विजन में !
बड़ी विसंगतियां होती हैं ,
छोटे-से जीवन में !

पीड़ा जितनी बढ़े, बढ़े उतनी ही नादानी,
अपनी बानी भूल, सीख-ली निर्जन की बानी,
कोई भी अंतर न रह गया,
गुंजन औ' क्रंदन में !

घाटी उतरे देह, प्राण पर्वत-पर्वत डोले,
अधर-धरी बाँसुरी, स्वगत की भाषा में बोले,
संवेदन करुणा में बदले
करुणा संवेदन में !

झील आँख नम कर जाये, आंसू अनुपात हरे,
अस्तंगत सूरज कुहरे में सौ-सौ रंग भरे,
रूप, दिखे पहले-जैसा
जल के अन्धे दरपन में !

No comments:

Post a Comment