Wednesday, August 27, 2014

इक नये अंदाज़ से हम दिल को बहलाने लगे - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'



इक नये अंदाज़ से हम दिल को बहलाने लगे !
राज़ की बातें भी बच्चों की तरह गाने लगे !!

हद से ज़्यादा बढ़ गईं एहसास की खामोशियाँ,
और हम जंजीर से जंजीर टकराने लगे !

जलवागाहों में हुई गुम कौन-सी परछाईयां,
इस भरी दुनिया में हम तन्हां नज़र आने लगे !



उनसे मिलने के लिये बेताब रहते थे कभी,
अब ये आलम है कि हम ख़ुद से भी कतराने लगे !

किस की खातिर अर्श को छूने लगीं बेताबियाँ,
ख़ुद को दे आवाज़, हम घाटी को थर्राने लगे !

बेख़ुदी को रास आए रास्तों के सिलसिले,
मंजिलों पर मंजिलें 'सिन्दूर' ठुकराने लगे !

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