Friday, August 8, 2014

ऐसी गांठ बंधी अंतस में - अमर नाथ श्रीवास्तव

ऐसी गांठ बंधी अंतस में,
चाहा भी तो खोल न पाया  !
कभी समय पर सोच न पाया
कभी समय पर बोल न पाया !

भीतर-भीतर फ़ांस समेटे
बाहर-बाहर हँसी तुम्हारी ,
तुमसे मिलना उत्सव ऐसा
रातें रूठी , पलकें भारी,

मिला मुझे आकाश मिलन का
मैं अपने पर तोल न पाया !

वे परम्परा के आभूषण
भार हो गये रिश्ते नाते ,
धारण करते जी डरता था
खोने का भय , आते-जाते

फूलों के जेवर जो सोचे
बाज़ारों में मोल न पाया !

बार-बार शब्दों का चुनना
बार-बार उनमें संशोधन ,
दो होठों के बीच रह गये
आगामी कल के संशोधन ,

फागुन की आहट आई भी
टेसू के रंग घोल न पाया !

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