Wednesday, August 6, 2014

मुझे पहाड़ पसंद थे तुम्हें नदी - विशाल कृष्ण

एक मुलाकात
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मुझे पहाड़ पसंद थे
तुम्हें नदी ,
हाँ तुम संग थोडी नदी मुझमें भी बहने लगी थी,
ठीक वैसे ही जैसे
मुझ संग तुम जी रही थी एक खामोश पहाड़ |

हम पहाड़ों पर गये तुमने धूप से जला मेरा चेहरा देखा|
और झट से सूरज और चेहरे के बीच अपनी पीठ रख दी,
मेरा चेहरा बर्फ सा शीतल हो उठा
और बिन कुछ कहे
मुझे नींद आ गयी |
जब उठा
तो मेरी नजर पानी से सड़ रहा तुम्हारे अंगूठे को निहारने लगी |
मै व्याकुलता से
दवा वाले शब्द ढुंढने लगा |
तुमने मेरे होठों पर उंगली रखी
और आंखों में ऐसे देखे
मानो कोई पुल बन गया हो
हवा में
और बटने लगा दर्द
आधा आधा |
तब शाम होने को थी
मुझे पहाड़ो पर लौटना था
तुम्हें नदी को |
पर शायद ,
वहाँ कुछ था
जो छूट  रहा था
जिसको बचा लेना बहुत जरूरी था |
हम जान कर भी
अनजान बने रहे
और लौट गये
अपने अपने रास्ते,
रास्ते जो दोनों छोर से जुडें थे
और इकलौते गवाह थे
नदी और पहाड़ के बीच
इस मुलाकात के |
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( मैं नहीं चाहता था
तुम ठहर जाओ
इक मुलाकात में
ताउम्र,
इसलिए कभी नहीं बताया
वो तमाम फिक्र,
जो तुम्हारे लिए
आज भी पल रही हैं
अन्दर ही अन्दर )

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