Thursday, October 30, 2014

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है - वसीम बरेलवी

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है !
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है !!

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते !
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है !!

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं !
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है !!

ज़मीं की कैसी वक़ालत हो फिर नहीं चलती !
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है !!

तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों !
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है !!

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