Sunday, March 15, 2015

चुप्पियाँ - वीरू सोनकर



1-
हमारी अपनी-अपनी चुप्पियों के बीच
एक स्थगित युद्ध या
एक स्थगित प्रहसन
हमेशा
अपनी संभावनाओ को टटोलता रहता है
देखा जाये तो,
सम्पूर्ण चुप्पी जैसा कुछ भी नहीं होता कभी !
2-
सभी वाद असफल है
सभी वाद सामान्यीकरण के विरोध में है
विशिष्टता की चाह में,
कोई भी वाद दुनिया को जरा भी नहीं बदल सका
प्रथमदृष्टया देखे तो,
दुनिया आज पहले से अधिक बर्बर हुई है

सभी मत,
सभी वाद
सभी सिद्धांत
मानव को विशिष्ट मान कर बनाये गए थे
मानव तो मूलतः जानवर ही था न ?
बाकि जानवरो जैसा ही...
कुछ तो ऐसा चाहिए , जो मानव के मनोविज्ञान को बाकि जानवरो जैसा ही समझ कर शोध करे ,
तब कोई निष्कर्ष आ भी सकता है
आदर्श मानव की खोज करना बंद करनी होगी,
इससे सिर्फ और सिर्फ रंगे सियार ही मिलेंगे
और कुछ नहीं !



1 comment:

  1. बहुत खूब। अच्‍छी रचना प्रस्‍तुत की है आपने।

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