Friday, March 27, 2015

मर्दानगी के अवध्य वेताल की ओर से - रितेश मिश्रा इंदौर टाइम आफ इण्डिया में सीनियर रिपोर्टर

सांघातिक सड़कों का
सन्नाटा खरबोटती
चार्टर्ड बस के काले पर्दों के पीछे
बहुवीर्य में लिथड़े
शापित पितृत्वों के साए
मेंकोई न कोई शुक्राणु ज़मीन पाता ही
मार क्यों दिया !
मैं उस बलात्कार का अ-रोपित बेटा
अधिकल्पित प्रेतरोपा जाता,
जनमता तो
अभिव्यक्ति पाती अभीप्सित मर्दानगी
लोहे की राडों में उभरती नसों में रक्त के थक्के जमते हैं
वीर्यप्लावित सड़क पर रेंगते हैं
आत्मरति करती कारों के हुजूम
काले शीशों पर चमकते विज्ञापनों की परछाइयाँ
जिनके पीछे रचना था सभ्यता को
अपना सबसे बड़ा शाहकार
मार क्यों दिया !
यूं भी किसे गुरेज़ था बलात्कार से
सिवाय रात के पोशीदा इरादों पर भरोसा करने वाली
उस अभागी औरत के
मार क्यों दिया !
सदियों से घरों में रिसते कानूनी बलात्कारों के
सांस्कृतिक आकर्षण के सभी हामी थे।
बुतों के दामन से बंधी औरतें
रोटी की ताज़गी में बासी होती औरतें
जारज संतानों का बोझ ढोती गर्भ में
दक्खिन टोलों की सीलनभरी कोठरी के कोने पर-----!
पूरी तहज़ीब राज़ी थीएक जायज़ बलात्कार पर
एवरीबॉडी लव्स अ लीगल रेप------!
तो ढूंढ लेते तर्क इस बलात्कार का
दर्शन से,विज्ञान से
इतिहास की वस्तुनिष्ठ गति से
या किसी अपमार्केट विमर्श से मसलन 'विकास'
बलात्कारों से ही बसती हैं राजधानियां -------
मार क्यों दिया !
पर अब मैं कब तक करूं इंतज़ार
मैं मर्दानगी का अवध्य वेताल------कहाँ होऊं अवतरित
सभ्यता के किस स्काई स्क्रैपर पर
संस्कृति के किस पीपल वृक्ष पर
किस कापालिक के मन्त्रों पर होकर सवार
या इंतज़ार करूं
किसी जायज़ बलात्कार का

No comments:

Post a Comment