Thursday, March 19, 2015

महेश कटारे सुगम की एक ग़ज़ल

मुंह के अंदर दही जमाया जाता है
हाथों पर अब सत्य उगाया जाता है

माँ के द्वारा रोटी की लोरी गाकर
भूखे बच्चे को बहलाया जाता है

भूख जगाई जाती है इच्छाओं की
फिर लोगों को ज़हर खिलाया जाता है

पहले आग लगाते हैं बस्ती बस्ती
फिर आकर अफ़सोस जताया जाता है

बेचा जाता है अपनी औलादों को
फिर सेठों का क़र्ज़ चुकाया जाता है

इम्दादों के पीछे भी इक साज़िश है
दानों पर भी जाल बिछाया जाता है

खौफ दिखाकर भूत प्रेत भगवानों का
बच्चों को नाहक डरवाया जाता है

बहुत अलग है पर्दे के पीछे का सच
परदे पर कुछ अलग दिखाया जाता है

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