Thursday, June 12, 2014

मैं खण्ड-खण्ड हो गया, एक सम्मूर्तन के लिये ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं खण्ड-खण्ड हो गया, एक सम्मूर्तन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

तन तो प्रसून था, बिखर गया, पर मन मकरंद हुआ,
अंतर्ध्वनि को इतना गाया, संभाषण छन्द हुआ,
मैं कंठ-कंठ हो गया, एक सम्बोधन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैं किरण-किरण डूबा जल में, बादल-बादल उभरा,
सूरज, सागर हो गया और सागर कुहरा-कुहरा,
मैं रूप-रूप हो गया, एक सम्मोहन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैंने अनन्त पथ को गति की सीमा में बाँध लिया,
अपनी गूंगी-बहरी धुन को अक्षय संगीत दिया,
मैं गीत-गीत हो गया, एक अनुगुंजन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !

मैंने असंख्य बिम्बों में मनचाहे आकार जिये,
आक्षितिज वेणु-सी बजे, कि ऐसे स्वर-सन्धान किये,
मैं नाद-नाद हो गया, एक रस-चेतन के लिये !
स्वीकार लिया भुजबंध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये !


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