Friday, June 13, 2014

मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया, - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

आज जरा फुर्सत थी, उस टोले चला गया
उसके घर जाना क्या रोज-रोज होता है !
सहज दिन बिताना क्या रोज-रोज होता है !

मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया,
गन्ने से मीठे पल, कलयुग में जी आया,
थोड़ी सी राहत थी, उस टोले चला गया
रीझना-रिझाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
रूठना-मनाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

झिलमिल बहुरूप नैन-कोरों में ठहर गये,
रूढ़ हुए शब्दों को अर्थ मिले नये-नये,
कैसी कुछ चाहत थी, उस टोले चला गया
मन को गा पाना, क्या रोज़-रोज़ होता है !
छेड़ना तराना, क्या रोज़-रोज़ होता है !

मौज से फटेंगी अब कितनी ही संधायें,
लोकगीत गायेंगी, मूक- बधिर यात्राएं,
वक़्त की इनायत थी, उस टोले चला गया !
खुद पर इतराना क्या रोज़-रोज़ होता है !
साथ दे ज़माना, क्या रोज़-रोज़ होता है

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