Monday, June 30, 2014

वो एक दरिचा..... - 'सोनाली' बोस

वो एक दरिचा.....
हाँ एक दरिचा ही तो है
जिसमें झाँक कभी पा लेती हूँ
झलक उस बीते बचपन की..
और खनक उस बिछड़े यौवन की|
कभी खोल उस वातायन को
मिल लेती हूँ उन भूली गलियों से
जिनमें चलना अब मुनासिब नहीं
जिन राहों को नापना अब लिखा नहीं|
उस झूलते रेशमी परदे की ओट से
मिल आती हूँ उस अल्हड़ पगली से
जिसे खिलखिलाना भाता था
और बेवजह हंसना लुभाता था|
नाता है कुछ ख़ास मेरा और उसका
कभी मैं लड़ बैठती हूँ कभी वो रूठ जाती है
लेकिन पल भर बाद फिर पक्की सहेली जैसी
सब भूल, जुट जाती हैं हम दोनों...
निभाने साथ एक दूजे का..
थाह पाने एक दूजे की गहराई की
ठौर पाने एक दूजे की सांस की|

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