Wednesday, June 11, 2014

मन तुम फिर ऐसे जी डालो - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन तुम फिर ऐसे जी डालो
जैसे बचपन में जीते थे
भय-संकोच न पालो

वह जीवन सचमुच जीवन था
सिर्फ खेलना खाना
संगी-साथी लिए घूमना
गांव-गली मनमाना
बस्ती में वन या उपवन में
कोई भेद नहीं था
ऐसी चोखी लगन, जहाँ
रत्ती भर छेद नहीं था

दिन भर चलता ही रहता था
अपना आलो-बालो

पढना-लिखना शुरू कि सिर पर
पहली आफ़त आयी
ब्याह हुआ, बच्चे कर बैठे
बने बैल के भाई
फिर समाज ने घेरा डाला
ढेर भरी दी सीखें
इतना बोझ लदा कन्धों पर
निकली मुख से चीखें

अब जितनी सांसे बाकी हैं
वहां राग फिर गा लो

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