Thursday, June 26, 2014

दूर से दूर तलक एक भी दरख़्त न था - गोपाल दास 'नीरज'

दूर से दूर तलक एक भी दरख़्त न था
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर तो सख़्त न था

इतने मसरूफ़ थे हम जाने की तैयारी में
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक़्त न  था

मैं जिसकी खोज में ख़ुद खो गया था मेले में
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख़्त न था

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ
जिनपे इतिहास को लिखने के लिये वक़्त न था

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर
हमारे शहर में 'नीरज' सा कोई मस्त न था

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