Thursday, September 11, 2014

नहीं जानता मैं कहाँ हो तुम - ब्रह्मदेव बन्धु

नहीं जानता मैं
कहाँ हो तुम
किस शहर की किस गली में
बनाया है तुमने
आशियाना अपना
नहीं जानता मैं
हवा का कौन-सा आवारा झोंका
घुस आया था
तुम्हारे कमरे में
और अपने साथ लाये पंखों को
लगा दिया था
तुम्हारे बदन पर
उड़ गयी थी तुम
उसके साथ
आकाश की अनन्त ऊँचाइयों की ओर
और चाहकर भी
रोक नहीं पाया था मैं
तुम्हारी उड़ान को
नहीं जानता मैं
क्यों हुआ यह सब
बसंत की सुहानी शाम
क्यों बन गयी
पूस की कंपकपाती रात
कर्कश क्यों हो गयी
कोयल की कूक
उड़ते रंग-बिरंगे गुलाल
क्यों तब्दील हो गये
राख़ में
नहीं जानता मैं
कौन मुस्कुराता है अब
तुम्हारी मुस्कुराहट के साथ
कौन हँसता है
तुम्हारी हँसी के साथ
किसकी काँपती उँगलियाँ
स्पर्श करती है
तुम्हारी छुअन को
तुम्हारी आँखों की
अथाह गहराइयों को
कौन थाहता है
बार-बार
देर रात तक
मैं तो सिर्फ इतना जानता हूँ
दूर, बहुत दूर चली गई हो तुम
वहाँ, जहाँ पहुँच नहीं पाऊँगा मैं
बिना पंखों के
और पंख
जो मिल नहीं पायेंगे मुझे
सदियों तक
इसीलिए तो
अब-तक सहेज कर रखे हैं मैंने
तुम्हारी पायल की रूनझुन
तुम्हारे कदमों की आहट
तुम्हारी हथेलियों की गर्माहट
और तुम्हारे बदन की ख़ुशबू को
ताकि,
सबकुछ खोकर भी
कुछ तो महफूज़ रह सके
मेरे पास।

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