Tuesday, September 23, 2014

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ीली चादर - आलोक श्रीवास्तव

पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ीली चादर
चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर

हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के ज़ेवर


है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

यहां के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत

यहां की ज़ुबां है बड़ी ख़ूबसूरत
यहां की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत

यहां की हवाएं मुअत्तर-मुअत्तर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

ये झीलों के सीनों से लिपटे शिकारे
ये वादी में हंसते हुए फूल सारे

यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे
फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर

है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र
सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना

अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना
ये पीरों फ़कीरों का है आस्ताना

यहां मुस्कुराती है क़ुदरत भी आकर
है कश्मीर धरती पे जन्नत का मंज़र

मगर कुछ दिनों से परेशान है ये
तबाही के मंज़र से हैरान है ये

पहाड़ों में रहने लगी है ख़मोशी
चिनारों के पत्तों में है बदहवासी

न केसर में केसर की ख़ुशबू रही है
न झीलों में रौनक़ बची है ज़रा-सी

हर इक दिल उदासी में डूबा हुआ है
हर इक दिल यहां बस यही कह रहा है-

संभालो-संभालो फ़रिश्तों का ये घर
बचा लो बचा लो ये जन्नत का मंज़र

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