Thursday, September 25, 2014

रखो अपने विमर्श अपने पास - दिलीप वसिष्ठ

रखो अपने विमर्श अपने पास
रोज सुबह उठकर चपड चपड करते रहो।।
तुम्हे साधन भी मिले है
और संसाधन भी।।।
न तुम्हे नारित्व का पता है
न पौरूष का....
यह लिङ्ग भेद नही
उससे आगे की जीजिविषा है।।।
तुम लडते रहो
अपने सुख को अभिशाप करके...
हमे तो जीना है भाई......।।
न मुझे रोटी बनाने और बर्तन मलने
से आपत्ति है।।
और न उसे बोझा ढोने से.....
साहब ज़िन्दगी कौन सी
इत्र है
तुम्हारे संडास से पूछना।।।।
यहाँ तो
सडक के किनारे भी
मेंहदी के पौधे लगे है...
देखना है तो
सडक बनाने आ जाओ.....।।।

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