Thursday, September 25, 2014

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने - रमानाथ अवस्थी

बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

प्यास मुझे ही क्या, यह जग में सबको भरमाती है
जिसमें जितना पानी, उसमें उतनी आग लगाती है
आग जलती ही है, चाहे भीतर हो या बाहर हो
चलने वाले से क्या कहिये, पानी हो या पाथर हो

छांव उसी की है, जिसको भी गले लगाया घाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

मेरे चारों ओर लगा है , मेला चार दिशाओं का
जिसमें शोर बहुत है, कम है अर्थ ह्रदय के भाव का
मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ, इस अंतहीन कोलाहल में
जैसी कोई आग ढूढती हो छाया दावानल में

मेरी जलन न जानी अब तक किसी सुबह या शाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने

घन से लेकर घूँघट तक के आंसू से परिचय मेरा
हर आंसू की आग अलग है, एक मगर जल का घेरा
कोई आंसू दिखलाता है, कोई इसे छिपाता है
कोई मेरी तरह अश्रु को गाकर जी बहलाता है

आंसू क्या वे समझे, जिनको सोख लिया घन घाम ने
मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने
 



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