Tuesday, May 13, 2014

वह नहीं , कि मैं जो बाहर हूँ , वह नहीं , कि मैं जो भीतर हूँ , - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

वह नहीं , कि मैं जो बाहर हूँ ,
वह नहीं , कि मैं जो भीतर हूँ ,
फिर क्या हूँ मैं , इस का कोई संज्ञान नहीं !
कल्पना नहीं , अनुमान नहीं !

शून्य में एक अनुगुन्जन-सा रहता हूँ मैं ,
सूरज में मानसरोवर-सा बहता हूँ मैं ;
अक्षत यौवन , मन्वन्तर हूँ ;
संसृति में मुझ-जैसा कोई गतिमान नहीं !
मेरा , कोई प्रतिमान नहीं !

सरसिज में बंदी , एक स्वप्न जीता हूँ मैं ,
अश्रु से उतारी-गयी सुरा पीता हूँ मैं ;
मैं एक लहर का , सागर हूँ ,
शिखरों पर घाटी का स्वर हूँ ;
मुझ पर चल पाता विधि का एक विधान नहीं !
मैं , मात्र एक म्रियमाण नहीं !

भोग से , योग में गए मिलन का क्षण हूँ मैं,
मधु से , माधव हो गए सृजन का क्षण हूँ मैं ;
मैं क्षर से जन्मा , अक्षर हूँ ,
कल्पान्त-मुक्त कालान्तर हूँ ;
मेरे पथ में , इति का कोई व्यवधान नहीं !
मैं , जीवन हूँ , निर्वाण नहीं !

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