Monday, May 12, 2014

सोचता हूँ कवि हो कर क्या फर्क हैं मुझमे और तुममे - वीरू सोनकर

सोचता हूँ
कवि हो कर
क्या फर्क हैं मुझमे और तुममे
तुम चौराहे पर
पान वाले के चबूतरे पर
हर आती जाती
छोटी स्कर्ट की लड़की में
नव विवाहिता की खिली हंसी में
खुद की अतृप्त पिपसाओ की तुष्टि पाते हो,
सुनो
उनको देख कर
यही तृप्ति मैं भी पाता हूँ
पर मैं कवि हूँ
एक बौद्धिकता भरी हँसी का चोला ओढ़े हुए,
मैं भी उन सुंदरियों की आँखों में
अपनी आँख
जबरन मिला कर
पिछली रात का मजा पाना चाहता हूँ
ये कोमल होंठ
सित्कारों पर कैसे लगे होंगे
सोचता हूँ
पर कवि हूँ
तो मैं तुम सा
फूहड़ इशारा नहीं करता
मैं ये काम अपनी आँखों से करता हूँ,
अपनी कविताओ को
खूब पढाना चाहता हूँ
उन शर्माई सकुचाई लडकियों औरतो को,
ताकि वो जान ले
मैं भी मर्द हूँ
एक कवि होकर भी,
मुझमे भी उनकी उतनी ही चाह हैं
जितनी उस पान वाले के चबूतरे की भीड़ में खड़े छिपे उस मजनूँ में हैं,
पर वो कवि नहीं हैं, मैं हूँ
वो बाहर से फूहड़ हैं
मैं अन्दर से हूँ
बिलकुल उसके जैसा
अतृप्त, प्यासा
अवसर मिलते ही खा जाने को तत्पर,
मैं एक शांत
उच्च कोटि का मशहूर कवि हूँ
तुम नहीं हो....फूहड़ कहीं के

No comments:

Post a Comment