Thursday, May 15, 2014

आओ लौट चलें अब ख़त्म हो गया दिल का मेला ! - रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

आओ लौट चलें
अब ख़त्म हो गया दिल का मेला !

शेष बचा है केवल जाने-वालों का कोलाहल ,
उगती पीताभा की किरणों का सूनापन अविरल ,
उखड़ चुकी शिवरों की पाँतें , बढ़ी सभी दुकानें
घिरे-घिरे-से स्तब्ध रुलायीके मटियारे बादल ,
चला जा रहा भीत प्रभासी
पश्चिम पवन अकेला !

विगत हुई कल-कंठों के मधुरिम गीतों की सिहरन ,
यूथ-नृत्य क्रीड़ा का चंचल उल्लासी पागलपन ,
ढूढ़ रहे तुम जिज्ञासातुर क्या अब अंत समय में
ध्वनित हो रहा दिगदिगंत में जब केवल उजड़ापन ,
दो धारों में बंधी रेत-सी
यह अवसादी वेला !

अरे ! कहाँ तुम चले गये हो उखड़े ख़ेमे-वालो ,
हम चलते हैं साथ तुम्हारे , ठहरो ! हमें मिला लो ,
सिमटी-ठिठुरी हाट-बाट का होना है जो होगा
रोके रहना नाव , रुको ओ सभी लौटने-वालो !
सदानीर कर्मों की सरिता में
किस की-अवहेलना ?

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