Friday, May 30, 2014

मन भी बज्जुर मूरख ठहरा - कृष्ण मुरारी पहारिया

मन भी बज्जुर मूरख ठहरा
मेरी कोई बात न सुनता
बनता इतना बहरा

कविता लिख-पढ़ हुआ घमंडी
इसको भी यह छोड़े
जीवन तो इतना व्यापक है
नयी जमीनें तोड़े
या फिर अपनी उमर देख कर
गहे मौन का आँचल
साफ करे अपने भीतर का
जनम-जनम का काज़ल

जिस नदिया को देख हंस रहा
उसका जल है गहरा

सड़क-सड़क चलता तो पुल थे
पार उतर ही जाता
चाट अमरता की पड़ने पर
टूटा सबसे नाता
चाहे जितना भी समझाओ
उलटे ही चलता है
मुझको इसका चाल-चलन यह
सचमुच अब खलता है

इसकी गतिविधियाँ लगती ज्यों
मरे सांप का लहरा

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