Friday, May 30, 2014

मैं प्रसंग वश कह बैठा हूँ तुम से अपनी रामकहानी ! - प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

मैं प्रसंग वश कह बैठा हूँ तुम से अपनी रामकहानी !

मेरे मन-भावन मंदिर में बैठी हैं खण्डित प्रतिमाएं,
विधिवत् आराधन जारी है, हँसी उड़ाती दसों दिशाएं;
मूक वेदना के चरणों में, मुखर वेदना नत-मस्तक है,
जितनी हैं असमर्थ मूर्तियाँ, उतना ही समर्थ साधक है;
एक ओर ज़िन्दगी कामना, एक ओर निष्काम कहानी !

बिखर गयी ज़िन्दगी कि जैसे बिखर गयी रत्नों की माला,
कोहनूर कोई ले भागा, तन का उजला मन का काला;
हरा मेरा सत्य, कि जैसे सपना भी न किसी का हारे,
सांसों-वाले तार चढ़ गये, जो वीणा के तार उतारे;
ख़ास बात ही बन पाती है, दुनिया की आम-कहानी !

एक ज्वार ने मेरे सागर को शबनम में ढाल दिया है,
कहने को उपकार किया है, करने को अपकार किया है ;
प्रखर ज्योति ने आँज दिया है आँखों में भरपूर अँधेरा,
मैं इस तरह हुआ जन-जन का, कोई भी रह गया न मेरा;
कामयाब है जितनी, उतनी ही ज़्यादा नाकाम कहानी !

निर्वसना प्रेरणा कुन्तलों बीच छिपाये चन्द्रानन है,
आंसू ही पहचान सकेगा, लहरें गिन पाया सावन है;
मेरा यह सौभाग्य, कि मुझ को हर अभाव धनवान मिला है,
पीड़ा को बाहर-जैसा ही, घर में भी सम्मान मिला है;
नाम-कमाने की सीमा तक, हो-बैठी बदनाम कहानी !


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