Monday, May 19, 2014

मैं प्यासा भृंग जनम-भर का ! - गोपाल सिंह 'नेपाली'

मैं प्यासा भृंग जनम-भर का !
फिर मेरी प्यास बुझाये क्या
दुनिया का प्यार रसम भर का !

चंदा का प्यार चकोरों तक ,
तारों का लोचन-कोरों तक ,
पावस की प्रीत क्षणिक-सीमित
बादल से ले-कर भँवरों तक ,
मधु-ऋतू पर ह्रदय लुटाऊं तो
कलियों का प्यार कसम भर का !

महफ़िल में नज़रों की चोरी ,
पनघट का ढंग सीनाज़ोरो ,
गलियों में शीश झुकाऊँ तो ,
यह , दो घूटों की कमज़ोरी,
ठुमरी ठुमके या ग़ज़ल छिडे
कोठे का प्यार रक़म भर का !

ज़ाहिर में प्रीति भटकती है ,
परदे की खटकती है ,
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों की बात अटकती है ,
नियमों का आँचल पकडूँ तो
घूँघट का प्यार शरम भर का !

जीवन से आदर्श बड़ा ,
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा ,
दो दिन जीने के लिये यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा ,
सन्यासी बन कर विचरूं तो
संतों का प्यार चिलम भर का !

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