Monday, May 5, 2014

औरों के सुख-दुःख को अपना माने इस बस्ती में कब कोई व्यक्ति मिला ! - देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'

औरों के सुख-दुःख को
अपना माने इस बस्ती में
कब कोई व्यक्ति मिला !

सब अपनी-अपनी कारा में बंदी
सब अपने-अपने गम में हैं डूबे ,
सब अपनी-अपनी सीमा के स्वामी
सब के अपने हैं अलग-अलग सूबे ,

तैनात सभी अपनी छावनियों में
सब का अपना-अपना है एक किला !

जब भी पुरवाई का झोंका आता
वन में सब तरुवर साथ झूमते हैं ,
सूर्य के चतुर्दिक अन्तरिक्ष में सब
ग्रह-उपग्रह मिल कर साथ घूमते हैं ,

व्यक्ति की प्रकृति क्यों भिन्न प्रकृति से है
क्यों उस का ही संवेदन हुआ शिला !

हीनतर प्रकृति से व्यक्ति सदा होता
फिर भी वह ख़ुद को श्रेष्ठ समझता है ,
वह मुक्तकाम हो कर भी , बंधन में
जन्म से मरण तक नित्य उलझता

व्यक्ति की अस्मिता टहनी से नाज़ुक ,
सुख-दुःख ने आ कर जिस को दिया हिला !

No comments:

Post a Comment