Wednesday, April 9, 2014

जिस तरफ़ कोई न जाता हो, उधर जाने दे ! प्रोफे. राम स्वरुप 'सिन्दूर'

जिस तरफ़ कोई न जाता हो, उधर जाने दे !
जीत का बोझ मेरे सर से, उतर जाने दे !!

ऐ ! मेरे इश्क़ तुझ से इल्तिजा, है ये मेरी,
एक मुद्द्त से छिपे राज़ को, मर जाने दे !

मैंने हर सम्त अपने गहरे निशां छोड़ दिये,
मेरी परवाज़ मुझे ख़ुद में ठहर जाने दे !

मैंने सोचा न कभी, मुझ को संवारे कोई,
आख़िरी वक़्त वो चाहे, तो संवर जाने दे !

हो के आया मैं इधर जिन तवील राहों से,
लौट कर फिर उन्हीं, राहों से गुज़र जाने दे !

आज 'सिन्दूर' अपना दर्द छिपाते न बने,
कुछ तो बिखरा हूँ, अभी और बिखर जाने दे !

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